Thursday, June 26, 2025

Attention

There is a thoughtless waking state, which is not sleep or samadhi, in which the person is completely under his control, just he does not use his mind to analyze someone i.e. to talk about someone else. In this state, there is no cosmic thought in your mind, but you are fully conscious.

There are many ways to practice meditation. With the help of these methods/techniques, an inner energy called prana (life force) is created and a spirit of compassion, love, patience, generosity, and forgiveness is developed. Apart from this, there are many health benefits like reducing stress and high blood pressure. Credits: myupchar




g



Friday, January 28, 2011

करे अपनी स्थितियों का विश्लेषण


हमारा सोचा हुआ काम जब नहीं होता है तो कुछ लोग केवल स्थितियों का विश्लेषण करते हैं। कुछ सारा दोष दूसरों पर डाल देते हैं। जो धर्म भीरू हैं वे लोग भगवान और भाग्य को भी बीच में ले आते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी असफलता, दु:ख और परेशानियों का कारण व निदान अपने भीतर ढूंढते हैं।
एक फकीर के पास आदमी ने जाकर कहा दुनिया में बहुत दु:ख हैं। जिधर देखो लोग परेशान हैं। कब हटेंगे दुनिया से दु:ख। उस फकीर ने कहा। दुनिया दु:खी नहीं है, तुम ही दु:ख हो। बात बड़ी गहरी है और सारे फकीर, संत-महात्मा यही कहते हैं। जिन्दगी दु:ख है, दुनिया नहीं। यह दु:ख और सुख का खेल मन में है पहले यहां से शुरू होता है और फिर इसका प्रतिबिम्ब दुनिया में नजर आता है।
फौजियों को परेड क्यों कराई जाती है? युद्ध में परेड काम नहीं आती लेकिन उनका शरीर लेफ्ट और राईट की ध्वनि के साथ अनुशासन में आ जाता है। और युद्ध में परेड नहीं अनुशासन काम आता है। ठीक ऐसे ही हमें जीवन के संघर्ष में विचारों का अनुशासन काम आएगा। इसी को कहा गया है दु:ख हम हैं, संसार नहीं। पहले दुकानों पर एक तख्ती लगी रहती थी जिस पर लिखा होता था आज नगद, कल उधार। इसमें कल शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि कल कभी आता नहीं।
हर कल आज है, वर्तमान है। जिस दिन आप भूतकाल को छोड़ेंगे, वर्तमान से जोड़ेंगे और भविष्य को योजना के स्तर पर पकड़ेंगे उस दिन आपकी पकड़ अपने सुख-दु:ख पर अलग ढंग से होगी। इसलिए जब भी जीवन में दु:ख जैसा आए, उसके कारण में स्वयं को जरूर खोजिए और ऐसा करते हुए एक काम अवश्य करें जरा मुस्कुराइये...

Saturday, January 15, 2011

ध्यान क्या है

ध्यान के बारे में विविध तथा परस्पर-विरोधी धारणाएं हैं। साधक के लिए सर्वप्रथम मन के स्वभाव को जानना आवश्यक है, न कि उससे संघर्ष करना। हममें से अधिकतर लोग अपने विचारों तथा भावों द्वारा नियंत्रित व चालित रहते हैं। यह हमें यह सोचने पर विवश कर देता है कि हमीं वे विचार व भाव हैं। ध्यान मात्र होना है, विशुद्ध अनुभूति, विचार व भाव के हस्ताक्षेप के बिना। यह एक वह सहज दशा है जिसे हम भूल गए हैं कि उस तक कैसे पहुंचा जाए।
ध्यान शब्द को सही प्रयोग ध्यान विधि के रूप में ही होना चाहिए। ये ध्यान-विधियां हमारे भीतर एक ऐसा वातावरण निर्मित करती हैं जो हमें देह-मन की पकङ से मुक्त कर हमें स्वयं में स्थित करने में सहायक होती है। आप किसी भी समय पर कर सकते हैं - कार्य करते हुए, आराम करते हुए, एकांत में तथा दूसरों के साथ।

इन ध्यान विधियों की आवश्यकता केवल तब तक है जब तक आप ध्यान की अवस्था को प्राप्त नहीं होते जिसे हम विश्रांत सजगता, चेतनता तथा केन्द्र पर स्थापित होना कहें और यह केवल क्षणिक अनुभूति नहीं अपितु आपकी श्वसन-क्रिया की भांति अस्तित्वगत अनुभव है।


ध्यान...
केवल उन लोगों के लिए है जो आध्यात्मिक खोज में संलग्न हैं।
ध्यान के बहुआयामी लाभ हैं। जिनमें मुख्य है - विश्रांति की क्षमता तथा तनावरहित सजगता।

"मन की शांति" प्राप्त करने के लिए

मन की शांति विरोधाभासी शब्द है। मन स्वभाव से ही वाचाल है। ध्यान द्वारा हम ऐसा गुर जान लेते हैं जो आपके और मन के व्याख्यान के भीतर एक फासला कायम कर देता है ताकि यह मन भावनाओं तथा विचारों की नौटंकी के साथ आपके मौन की अस्तित्वगत दशा को भंग न कर सके।

एक मानसिक अनुशासन या मन को नियंत्रित करने का प्रयास है ताकि आपका वैचारिक-तल और समृद्ध हो सके।
ध्यान मन पर काबू पाने के लिए एक मानसिक प्रयास या प्रयत्न नहीं है। प्रयास व नियंत्रण ऐसे शब्द हैं जो तनाव की ओर इंगित करते हैं और तनाव ध्यान की दशा के सर्वथा विपरीत है। इसके अतिरिक्त मन को नियंत्रित करने की कोई आवश्यकता नहीं - बस यह समझना है कि इसकी गति क्या है। साधक को मन पर काबू पाने की और विचारवान होने की कोई आवश्यकता नहीं - आवश्यकता है तो अपनी चेतना के तल को ऊपर ले जाने की।

केँद्रीकरण, एकाग्रता या चिंतन।
केँद्रीकरण, एकाग्रता की भांति चेतना को संकीर्ण करना है। आप अन्य सब कुछ नकार कर एक वस्तु पर एकाग्र होते हैं। इसके विपरीत ध्यान में दोनों का समावेश है, आपकी चेतना विस्तीर्ण होती जाती है। एकाग्रचित व्यक्ति केवल एक वस्तु पर केंद्रित होता है - शायद धार्मिक विषय पर, किसी चित्र पर या फिर किसी प्रेरणात्मक सूत्र पर। साधक मात्र सजग होता है परंतु किसी विशेष वस्तु के प्रति नहीं।

Sunday, January 2, 2011

अपने आप को पहचानो


शरीर को इतना शिथिल छोड़ देना है कि ऐसा लगने लगे कि वह दूर ही पड़ा रह गया है, हमारा उससे कुछ लेना-देना नहीं है। शरीर से सारी ताकत को भीतर खींच लेना है। हमने शरीर में ताकत डाली हुई है। जितनी ताकत हम शरीर में डालते हैं, उतनी पड़ती है; जितनी हम खींच लेते हैं, उतनी खिंच जाती है।
आपने कभी खयाल किया, किसी से झगड़ा हो जाए, तो आपके शरीर में ज्यादा ताकत कहां से आ जाती है? और आप इतना बड़ा पत्थर उठाकर फेंक सकते हैं क्रोध की हालत में, जितना बड़ा पत्थर आप शांति की हालत में हिला भी न सकते थे। कभी आपने सोचा, यह ताकत कहां से आ गई? शरीर आपका है, यह ताकत कहां से आ गई? यह ताकत आप डाल रहे हैं। जरूरत पड़ गई है, खतरा है, मुसीबत है, दुश्मन सामने खड़ा है। पत्थर को हटाना है, नहीं तो जिंदगी खतरे में पड़ जाएगी। तो आप अपनी सारी ताकत डाल देते हैं शरीर में।
एक बार ऐसा हुआ, एक आदमी दो वर्षों से पैरेलाइज्ड था, लकवा लग गया था। और पड़ा था अपनी खाट पर, उठ नहीं सकता, हिल नहीं सकता। डाक्टर इलाज करके परेशान हो गए। आखिर उन्होंने कह दिया कि अब यह जिंदगी भर पक्षाघात ही रहेगा। फिर अचानक एक रात उस आदमी के घर में आग लग गई। सारे लोग घर के बाहर भागे। बाहर जाकर उन्हें खयाल आया कि अपने परिवार के प्रमुख को तो भीतर छोड़ आए हैं-बूढ़े को। वह तो भाग भी नहीं सकता, उसका क्या होगा? लेकिन तब उन्होंने देखा कि-अंधेरे में कुछ लोग मशालें लेकर आए-तो देखा कि बूढ़ा उनके पहले बाहर निकल आया है। उन सब ने उससे पूछा, आप चलकर आए क्या? उसने कहा, अरे! वह वहीं पक्षाघात खाकर फिर गिर पड़ा। उसने कहा कि मैं तो चल ही कैसे सकता हूं? यह कैसे हुआ?
लेकिन चल चुका था वह, अब हुआ का सवाल ही न था। आग लग गई थी घर में, सारा घर भाग रहा था। एक क्षण को वह भूल गया कि मैं लकवा का बीमार हूं। सारी शक्ति वापस शरीर में उसने डाल दी। लेकिन बाहर आकर जब मशाल जलीं और लोगों ने देखा कि आप! आप बाहर कैसे आए? उसने कहा, अरे! मैं तो लकवे का बीमार हूं। वह वापस गिर पड़ा, उसकी शक्ति फिर पीछे लौट गई।
अब उसकी ही समझ के बाहर है कि यह कैसे घटना घटी। अब उसे सब समझा रहे हैं कि तुम्हें लकवा नहीं है, क्योंकि तुम इतना तो चल सके; अब तुम जिंदगी भर चल सकते हो। लेकिन वह कहता है, मेरा तो हाथ भी नहीं उठता, मेरा पैर भी नहीं उठता। यह कैसे हुआ, मैं भी नहीं कह सकता। पता नहीं कौन मुझे बाहर ले आया!
कोई उसे बाहर नहीं ले आया। वह खुद ही बाहर आया। लेकिन उसे पता नहीं कि उसने खतरे की हालत में उसकी आत्मा ने सारी शक्ति उसके शरीर में डाल दी। और यह भी उसका भाव है कि उसने शक्ति फिर वापस अपने भीतर खींच ली, अब वह फिर लकवे में पड़कर मरीज हो गया। और ऐसा लकवे के एकाध मरीज के साथ हुआ हो, ऐसा नहीं है। ऐसी सैकड़ों घटनाएं पृथ्वी पर घटी हैं जब कि लकवे का आदमी बाहर आ गया है, आग लगने की हालत में या कोई खतरे की हालत में और भूल गया है, खतरे में भूल गया है कि मैं किस हालत में हूं।
तो मैं आपसे यह कह रहा हूं कि शरीर में हमारी शक्ति हमारी डाली हुई है, लेकिन निकालने का हमें कोई पता नहीं कि हम वापस कैसे निकालें। रात इसीलिए हमें आराम मिल जाता है कि अपने आप शक्ति वापस चली जाती है भीतर और शरीर शिथिल होकर पड़ जाता है। सुबह हम फिर ताजे हो जाते हैं। लेकिन कुछ लोग रात को भी अपनी शक्ति बाहर नहीं निकाल पाते हैं, शरीर में शक्ति रही ही आती है। तब नींद मुश्किल हो जाती है। इनसोमेनिया या नींद का न आना सिर्फ एक ही बात का लक्षण है कि शरीर में डाली गई ताकत पीछे लौटने का रास्ता नहीं नती है।
तो पहला तो ध्यान के लिए, पहला मृत्यु में प्रवेश का जो चरण है, वह शरीर से सारी शक्ति को निकाल लेना है। अब यह बड़े मजे की बात है कि सिर्फ भाव करने से शक्ति अंदर वापस लौट जाती है। अगर थोड़ी देर तक कोई मन में यह भाव करता रहे कि मेरी शक्ति अंदर वापस लौट रही है और शरीर शिथिल होता जा रहा है, तो वह पाएगा कि शरीर शिथिल हो गया है, शिथिल हो गया है, शिथिल हो गया है, शिथिल हो गया है। और शरीर उस जगह पहुंच जाएगा कि खुद ही अपना हाथ उठाना चाहे तो नहीं उठा सकेगा, सब शिथिल हो जाएगा। यह हमारा भाव है, जो हम शरीर से वापस खींच सकते हैं। तो पहली तो बात है, शरीर से सारे प्राण का भीतर वापस पहुंच जाना। तो शरीर खोल की तरह पड़ा रह जाएगा और बराबर ऐसा दिखाई पड़ेगा कि नारियल में फासला पड़ गया-हम अलग हो गए और शरीर की खोल बाहर पड़ी है कपड़ो की भांति।

Saturday, January 1, 2011

प्रभु का खेल


व्यर्थ की आशा, व्यर्थ की उम्मीदें, व्यर्थ की इच्छाएं हम लोग करते रहते हैं, पर एक बात भूल जाते हैं कि जो कुछ आज हमारे या तुम्हारे जीवन में हो रहा है, यह एक बड़े नाटक का एक छोटा-सा हिस्सा है। आज जो अपने हैं, वे पराए हो रहे हैं। जो पराए हैं, वे अपने हो रहे हैं। कोई मिल रहा है, कोई बिछुड़ रहा है। अपने जीवन को एक खेल की तरह देखो कि प्रभु क्या खेल दिखा रहा है। थोड़ा पीछे अगर जाओ, अपने जीवन में पीछे झांको। पुराने समय में कोई ऐसा वक्त आया हो जब भारी दुख हुआ हो, उसे याद करो। जब वह समस्या थी, जब वह मुश्किल थी तो लगता था कि यह कभी हल नहीं होगी। यह वक्त तो कभी बीतेगा ही नहीं, पर धीरे-धीरे वह समस्या हल हो जाती है। वह परेशानी दूर हो जाती है।
बुद्ध ने इस बात पर बड़ा जोर देकर कहा था कि समय, जीवन और संसार एक चक्र की तरह हैं, जो घूमता रहेगा, बदलता रहेगा, चलता रहेगा और विवेकी वही है, सुखी वही इस जीवन में रह सकेगा, जो इस घूमते हुए चक्र को रोकने की कोशिश न करे। चक्र चल रहा है, चक्की चल रही है, चलता हुआ चक्र किसी की मर्जी से रुकने वाला नहीं है, पर फिर भी जबरदस्ती उसे रोकने की कोशिश करें तो हाथ क्या आएगा?
संसार और हमारा जीवन एक चक्र की तरह है और इस चक्र में आज जो चीज है, वह कल नहीं रहेगी। जो कल होगी, वह फिर नहीं रहेगी। चीजें बदलती हैं, इनका बदलना स्वभाव है। संसार का बदलना स्वभाव है। तो आप यह करें कि इस बदलाव को स्वीकार करना सीखिए। इस बदलाव को रोकने की कोशिश मत करिए और हम यही करते हैं। आज सुख है तो चाहते हैं कि यह सुख बना ही रहे।
आज शोहरत है तो चाहत बनी रहती है कि यह शोहरत बनी रहे। आज सब ओर शांति है तो लगता है कि शांति बनी ही रहे। पर यह जरूरी नहीं है कि युवावस्था में यदि आपने कोई शोहरत हासिल की हो तो वह शोहरत बनी ही रहे। सुख जो आज है, जरूरी नहीं कि वह कल भी बना रहे। इसलिए यह जरूरी है कि समय के इस सत्य को दिल से स्वीकार करने के लिए तैयार रहें कि आज जो है वह हमेशा नहीं रहेगा। युवावस्था में जो ऊर्जा, बल और ताकत था वह समय के साथ-साथ जीवन के सांध्यकाल में हमारे साथ बना रहे जरूरी नहीं। हालांकि कुछ प्रयासों के तहत हम उसे कुछ हद तक बनाए रख सकते हैं, लेकिन पूरी तरह नहीं। जिसने इस बात को सहज स्वीकार कर लिया उसी का जीवन आगे चलकर सुखी रह सकता है।
इसलिए वर्तमान समय से बंधे रहने की आवश्यकता नहीं है। स्थितियां बदलती हैं, समय बदलता है। यह पल-पल परिवर्तन ही प्रकृति का और संसार का नियम है। और वैसे भी कोई भी चीज नियम के विपरीत नहीं होती। हर चीज के पीछे ईश्वर का, परमात्मा का और कह सकते हैं कि जगत का नियम है। इसलिए किसी चीज के लिए लड़ें नहीं और जब चीजें बदलें तो दुखी होने की जरूरत नहीं। नई राह पर चलो। पुराने रास्ते से जितनी जल्दी छूट सको, उतनी जल्दी छूटो। पुरानी आदत है चीजों को पकडऩे की और नई आदत है चीजों को छोडऩे की।
साभार - कतरने से